अंगुलिमाल


    
अंगुलिमाल
अंगुलिमाल और बुद्ध की कहानी शायद आपने पढ़ी होगी और आप यह भी जानते होंगे कि अंगुलिमाल का नाम , अंगुलिमाल क्यों पड़ा ? लेकिन क्या आप यह जानते है कि  
अंगुलिमाल का वास्तविक नाम क्या था ?
उसके माता – पिता कौन थें ?
अंगुलिमाल का जन्म श्रावस्ती के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था | उसके पिता का नाम भार्गव और माँ का नाम मंतानी था | अंगुलिमाल के पिता लोगो द्वारा देखे गए सपनों के आधार पर भविष्यवाणी किया करते थे और वे कौशल के सम्राट प्रसेनजित के दरबार में एक सलाहकार थे | अंगुलिमाल के जन्म से पूर्व उसकी माँ मंतानी ने स्वप्न में देखा कि आसमान में बिजलियां कड़कते हुए आपस में तलवारों की तरह टकरा रही हैं | जब बिजलियों की कड़कड़ाहट खत्म हुई , तब आसमान के सारे ग्रह – नक्षत्र अदृश्य हो गए और आसमान में सिर्फ लाल लहरें उठ रही थीं |
मंतानी के विचित्र सवप्न के आधार पर भार्गव ने यह जान लिया कि उनकी आने वाली संतान के हाथों बहुत
रक्तपात होगा | जब मंतानी ने पुत्र को जन्म दिया तब भार्गव ने उसका नाम रखा – अहिंसक |
क्योंकि भार्गव अपने पुत्र का भविष्य बदलना चाहते थे | उन्होंने सोचा कि अहिंसक नाम जब भी पुकारा जायेगा तब यह बात उसके भीतर बैठती जायेगी कि वह अहिंसक है |
कुछ बड़े होने के बाद अहिंसक को पढ़ने के लिए तक्षशिला  भेज दिया गया |
गुरुकुल में अहिंसक अन्य छात्रों की अपेक्षा पढ़ने - लिखने में ज्यादा तेज था | गुरु उसकी तेज बुद्धि और नम्रता से बहुत प्रभावित थे | इससे अन्य छात्र छात्र उससे चिढ़ते थे और उसे अपमानित करने के मौके की तलाश में रहते थे | गुरु की नजरों में अहिंसक को नीचा दिखाने का एक अवसर उन्हें मिल ही गया | गुरु की दूसरी पत्नी युवा थी और वह स्वयं ही अहिंसक की ओर आकर्षित होने लगी थी |  
वे छात्र गुरु के पास गए और कहा – “ अहिंसक आपकी पीठ पीछे आपकी पत्नी को अपने जाल में फँसाने की कोशिश कर रहा है | जब आपकी पत्नी कुएं पर पानी लेने जाती है तब वह उनका पीछा करता है | कई बार तो  उनका रास्ता भी रोक लेता है | ”
जब गुरु जी ने अपनी पत्नी से इस बारे में पूछा तब वह डर गई और उसने भी सारा दोष अहिंसक पर लगा दिया | क्रोध में आकर गुरु जी अहिंसक को मार डालना चाहते थे , लेकिन उन्होंने उसे मारने के बजाय एक योजना बनाई जिससे उन्हें अहिंसक से छुटकारा भी मिल जाये और उन्हें अहिंसक की हत्या भी नहीं करना पड़े | मतलब साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे |
अंगुलिमाल लोगो की अंगुलियाँ क्यों काटता था ? 
गुरु जी ने अहिंसक को अपने पास बुलाया और उसे एकलव्य और गुरु द्रोणाचार्य की कहानी  सुनाई कि – किस प्रकार से एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य को गुरु – दक्षिणा में दिया था | कहानी सुनाने के बाद गुरु ने कहा – “ अब तुम्हारे गुरु – दक्षिणा देने का समय आ गया है | ”
अहिंसक ने कहा – “ मांगिये , मैं गुरु – दक्षिणा में आपको क्या दे सकता हूँ ? ”

 गुरु ने कहा – “ जैसे एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपनी एक अंगुली दी थी , उसी प्रकार तुम मुझे सौ अंगुलियाँ लाककर दो | यही मेरी गुरु – दक्षिणा होगी | ”
अहिंसक तो एकदम सरल हृदय का था | उसे यह बात बिल्कुल ही समझ नहीं आई कि वह सौ अंगुलियाँ कैसे दे सकता है ? वह गुरु से बोला – “ मेरे पास तो सिर्फ दस अंगुलियाँ ही हैं , मैं सौ अंगुलियाँ कैसे दे सकता हूँ ? ”
तब उसके गुरु ने अहिंसक को एक फरसा थमाते हुए कहा – “ दस लोगों की अंगुलियाँ काट कर मुझे दो | और अगर तुमने ऐसा नहीं किया , तब तुम गुरु द्रोह के साथ – साथ नर्क के भागी बनोगे और मुझसे सिखा हुआ सारा ज्ञान भूल जाओगे | ”
गुरु ने यह योजना बनाई थी कि अहिंसक ऐसा नहीं कर पायेगा तब गुरु – दक्षिणा नहीं दे पाने के पश्चाताप में वह आत्महत्या कर लेगा | और अगर उसने ऐसा किया तब वह पकड़ा जायेगा और उसे राज्य के नियम के अनुसार मृत्युदंड मिलेगा | दोनों ही स्थिति में अहिंसक की मौत निश्चित है |
अहिंसक फरसा लेकर , उदास मन से गुरुकुल से बाहर निकल गया | अन्य छात्र उसका मजाज उड़ाते हुए हंस रहे थे | वह जनता था कि गुरु ने जो दीक्षा मांगी है वह उन्हें नहीं दे सकेगा | उसे समझ नहीं आ रहा था कि
वह कहाँ जाए , क्या करे ? मगर कई दिनों तक चलने के बाद वह श्रावस्ती के बाहर के जंगल पहुँच गया |
जंगल के रास्ते दो लोग अपनी किसी बात पर जोर – जोर से हँसते हुए जा रहे थे | उस पल अहिंसक को लगा कि वे दोनों उसी पर हंस रहे हैं और उसने जो गुस्सा अपने अन्दर दबा कर रखा था | वह अचानक फुट पडा उसने उन दोनों को फरसे से मार डाला और उन दोनों राहगीरों की अंगुलियाँ काटकर , एक सुखी लता में पिरोया और गले में पहन लिया | उस दिन के बाद से जब भी कोई राहगीर जंगल के उस रास्ते से गुजरता , वह उसकी हत्या करके उसका खाने – पीने की वस्तुओं को लूट लेता और उसकी अंगुली काटकर अपनी माला में पिरो लेता था |
इस तरह अहिंसक डाकू अंगुलिमाल बन गया | समय बीतने के साथ उसके गले में सौ अंगुलिओं की माला कब की पूरी हो चुकी थी , लेकिन अब वह अपनी माला में एक हजार अंगुलियाँ पूरी करने की प्रतिज्ञा की कर चूका था | वह गुरु दक्षिणा की बात भूल चुका था | अब उसे गुरु दक्षिणा से कोई लेना देना नहीं था | अब उस पर हत्या करने की सनक सवार हो चुकी थी , अब उसे ह्त्या करने में मजा आने लगा था |
जल्द ही लोगों ने उसके भय से उस जंगल के रास्ते से गुजरना बंद कर दिया | और लोगों ने सम्राट प्रसेनजित के पास जाकर अपनी व्यथा सुनाई | तब सम्राट प्रसेनजित ने घोषणा किया कि वह अपनी सेना के साथ जंगल में जाकर अंगुलिमाल को पकड़ेंगे और उसे चौराहे पर मृत्युदंड देंगे |
भगवान बुद्ध उस समय जेतवन में रुके हुयें थे | जब बुद्ध ने अंगुलिमाल के बारे में सुना तब बुद्ध ने कहा कि वह जंगल में अंगुलिमाल से मिलने अकेले जायेंगे | बुद्ध की बात सुनकर सभी आश्चर्यचकित हो गए | उन्होंने बुद्ध से कहा – “ यदि आप वहां जायेंगे तब वह आपको भी मार डालेगा | ”
मगर बुद्ध ने जाने का निश्चय कर लिया था | जब बुद्ध जंगल में पहुंचे तब साँझ ढ़लने ही वाला था |
उस समय अंगुलिमाल एक ऊँचे वृक्ष पर बैठा हुआ था | उसकी माला में एक हजार अंगुलियाँ पूरी होने में सिर्फ एक अंगुली ही बाकी बची थी | यानी की उसकी माला में नौ सौ निन्यानवे अंगुलियां पूरी हो चुकी थी | जैसे ही उसने बुद्ध को आते हुए देखा वह उनकी ओर दौड़ा वह जैसे – जैसे बुद्ध के नजदीक पहुंचता जा रहा था बुद्ध का चेहरा स्पष्ट होने लगा | वह बुद्ध को देखकर आश्चर्यचकित रह गया – कोई मनुष्य ऐसा कैसे हो सकता है ! वह ठिठक कर रुक गया मगर बुद्ध उसकी ओर चलते रहे | अंगुलिमाल ने सोचा – लोग मुझे देखकर भागने लगते थे , लेकिन यह कौन है , जो निर्भय मेरी ओर चला आ रहा है ?
अंगुलिमाल ने चेतावनी देते हुए कहा – “ वहीं रुक जाओ | ”
बुद्ध ने कहा - " मैं तो रुका हुआ हूँ | तू कब रुकेगा ?  "
अंगुलिमाल बोला – “आपको पता भी है कि आप क्या बोल रहे हैं ? चल आप रहे हैं और मैं खड़ा हूँ , और आप हैं कि मुझे ही रुकने को कह रहे हैं | ”
मगर अब तक बुद्ध उसके पास आ चुके थे | बुद्ध ने कहा – “ तू काटता है मगर उसे जोड़ने की शक्ति तुझमे नहीं है फिर तुझे काटने का क्या अधिकार है ? ”
बुद्ध के वचन सुनकर अंगुलिमाल के हांथों से फरसा छुट गया | वह बुद्ध के चरणों में गिर कर रोता रहा | कुछ देर बाद बुद्ध बोले –  “ आज से तू मेरा भिक्षु हुआ | ” फिर अंगुलिमाल बुद्ध के साथ जेतवन आ गया | 
सम्राट प्रसेनजित ने अंगुलिमाल को मृत्युदंड क्यों नहीं दिया ?
अगली सुबह सम्राट प्रसेनजित अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ अंगुलिमाल को पकड़ने के लिए जंगल की ओर जा रहें थें | रास्ते में ही जेत्वं पड़ता था | प्रसेनजित अपनी सेना की टुकड़ी को बाहर छोड़ कर बुद्ध से मिलाने पहुंचे | उस समय बुद्ध अपने शिष्यों को प्रवचन देने जा रहे थें | जब उन्होंने प्रसेनजित को देखा तब उन्होंने प्रसेनजित से पूछा – “ राजन् आप बहुत दुख लग रहे हैं | ”
तब प्रसेनजित बोलें  - “ डाकू अंगुलिमाल के कारन प्रजा बहुत दुखी है | मैं उसे पकड़ने जा रहा हूँ | ”
बुद्ध ने प्रसेनजित से पूछा – “ यदि आपको यह पता चले कि अंगुलिमाल अब इन्हीं भिक्षुओं में से एक है , तब आप क्या करेंगे ? ”
प्रसेनजित ने हंसते हुए कहा – “ यदि यह असंभव बात संभव हो सकता हैं तब मैं अंगुलिमाल को कुछ वस्त्र उपहार देना चाहूंगा | ”
बुद्ध ने अंगुलिमाल को दिखाते हुए कहा – “ यह रहा अंगुलिमाल | ”
प्रसेनजित ने अंगुलिमाल को देखा और फिर चुपचाप बुद्ध के चरण स्पर्श करके अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ वापस लौट गया |
 प्रसेनजित ने अंगुलिमाल को मृत्युदंड नहीं दिया क्योंकि प्रसेनजित और बिम्बिसार के द्वारा बुद्ध के साथ यह मौखिक अनुबंध था कि उनके राज्य के नियम बुद्ध संघ पर लागू नहीं होंगे |  
अंगुलिमाल की मृत्यु कैसे हुई ?
बहुत दिनों बाद बुद्ध ने अंगुलिमाल से कहा – “ अब तू उपदेश देने के लिए जा सकता है | ”
जब वह गाँव में उपदेश देने गया तब लोगों ने उसका अपमान किया , उसे पत्थर मारने लगे | लेकिन वह चुपचाप खड़ा देखता रहा और बुद्धं शरणं गच्छामि , संघं शरणं गच्छामि , धम्मं शरणं गच्छामि कहता रहा |
फिर वह वहीँ रास्ते पर गिर पड़ा |
बुद्ध को खबर मिली और उसके अंतिम समय में वह उसके पास पहुंचे और कहा – “ तू परिनिर्वाण को उपलब्ध होकर मर रहा है | ”
       

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